समलैंगिक सेक्स कहानी – पंडितजी के पंडितानी
बड़े आपार दुःख के साथ आपको बताना पड़ रहा है की मेरे पतिदेव अब नहीं रहे. एक तरह से चलो अच्छा ही हुआ. अब मैं सरे आम भोलू जैसे लौंडे से अपनी चूत मारा सकती थी. अब तो इनका भी डर नहीं रहा. वैसे मुझे लगता है कि इनको अंदेशा तो था कि इनके पीठ पीछे मैं लौंडो से अपनी चूत की खाज मिटा रही हूँ पर एक लाज शर्म नाम की चीज़ से खुले आम तो नहीं चुदवा सकती थी. खैर इस उम्र में भी मैं और ज्यादा चुदासी हो रही हूँ.
पर यह वाकया तो सुनिए. पतिदेव ज्यादा कमाते नहीं थे. पर पैसे इतने नहीं बचा कर भी रखे. इनके लंड में भी इतना दम तो था नहीं की बाहर जा कर अपनी ठरक मिटाते. वैसे ठरक होती तो मैं औरों से क्यों चुद्वाती. खैर ये तो बाद की बात है. अब जब इनका देहांत हो गया तो इतने पैसे तो थे नहीं कि मैं ढंग से दाह संस्कार करा सकूं. भोज तो जैसे तैसे हो गया, पर पंडित को दक्षिणा देने लायक पैसे नहीं बचे. ये पंडित इनके मित्र थे. कुछ २-३ सालों से इनकी अच्छी खासी जान पहचान हो गयी थी. पंडित जी विधुर थे. इनकी औरत का कुछ समय पहले ही देहांत हो चुका था. देखने में अच्छे खासे आकर्षक थे. अभी ५३-५४ के ही शायद हुए होंगे. मेरे हमउम्र थे. हृष्ट पुष्ट शरीर था. और मैं अंदाज़ा लगाती हूँ की इनका लंड भी करीब ७ इंच का होना चाहिए. खैर आदमी के शरीर से लंड का ज्यादा पता नहीं लगता. ये बात तो बाद में पता चली. पंडितजी सदैव धोती कुरता में हुआ करते थे. जनेऊ भी पहनते थे. पर स्त्री गामी तो नहीं प्रतीत होते थे. पर अच्छे अच्छे लोगो की नीयत मैंने डोलते हुए देखा है.
मैंने पंडितजी को श्राद्ध के भोज के बाद घर पर दक्षिणा देने के लिए बुलाया. पंडितजी उधर चौकी पर बैठे थे. इनको गए हुए अभी १० दिन भी नहीं बीता था और में चुदासी हो चुकी थी. पैसे नहीं थे तो शायद पंडित चूत ही दक्षिणा ले ले. पर सीधे मुंह कैसे कहती. पंडित जी चौकी पर बैठे थे और मैं उनके पैर के पास बैठ गयी.
“पंडित जी, आपको घर की हालत पता तो होगी ही, आप समझ ही सकते हैं.”
“जी हाँ, भाभीजी, पर आपको तो पता ही है की बिना दक्षिणा के हमारे परम प्रिय मित्र को मुक्ति नहीं मिलेगी”.
“पर पंडित जी, मेरे पास इतने पैसे नहीं है, घर में जो कुछ है वो भी सब बिकने के कगार पर है. मैं भी सोच रही हूँ कि इनके बाद अब मेरा क्या होगा. मेरे पास न तो को काम है और न ही पैसे. अब आप ही कोई उपाय सुझाईये”
यह कह कर मैं ऐसे बैठ गयी जैसे लोग पखाने में बैठते हैं. इससे अगर मेरी साड़ी जरा सी ऊपर हो गयी तो पंडितजी को मेरे बाल रहित चूत का दर्शन हो जायेगा. पर रिझाना भी तो एक कला है.
पंडितजी शायद अभी तक मेरा इशारा नहीं समझे थे. कहने लगे
“भाभी जी, दुनिया का तो ऐसा ही रीती रिवाज है जो निभाना ही पड़ता है.”
अब मुझे लगा की अब नहीं डोरा डाला तो पता नहीं आगे क्या हो. मैंने सफाई से बेपरवाही का नाटक करते हुए अपना आँचल गिरा दिया. ब्रा तो पहले ही नहीं पहना था और मेरी ब्लाउज भी बिना बांह की थी. यो लो कट ब्लाउज था तो पीछे से पूरे पीठ की दर्शन और आगे से दरारों को दिखता था. उस पर से मैंने इसे ऐसे पहन रखा था जिससे मेरे कम से कम एक मुम्मे तो दिख ही जाये.
आँचल के गिरते ही, मैंने झट से उसे उठा लिया, किन्तु इतना समय दिया कि पंडितजी एक अच्छी नज़र से उसे देख ले.
मैंने झूठ मूठ झेंपते हुए कहा “पंडितजी मैं चाय बना कर लाती हूँ.”
फिर उठते हुए मैंने आँचल को ढीला छोड़ दिया कि इसबार तो दोनों मुम्मे और चूचिया साफ़ साफ़ दिख जाये. फिर मैं पलट गयी और अपने भारी भरकम नितम्ब को थोडा लचका लिया. मैंने चोर निगाह से देखा की पंडितजी की नज़र मेरे मुम्मो से मेरे गांड तक फिसल रही थी. मैंने इसका खूब मजा लिया और मटक मटक कर किचन जा कर चाय बनाया. कनखी से देखा की पंडितजी की धोती तम्बू बन रही थी और फिर नीचे हो गयी. इस उम्र में इतना नियंत्रण तो काबिल-ऐ-तारीफ़ है. पर मौके की नजाकत समझ कर मैं चाय बना कर जल्दी आ गयी. कहीं ऐसा न हो की पंडितजी मेरे हाथ से निकल जाये.
मैंने पंडितजी को झुक कर चाय दिया और ये बिलकुल पुष्टि कर ली की पंडितजी की नज़र चाय से ज्यादा मेरे मुम्मो पर हो.
अब तो असली कारनामा था. मैं बिलकुल पहले की तरह बैठ गयी, फर्क इतना था की इस बार फिर लापरवाही का नाटक करते हुए मैंने अपनी साडी थोड़ी ऊपर उठा ली, इतनी की मेरी चूत पंडितजी की सीधे नजर में हो.
पंडितजी देख कर अनभिज्ञ रहने का पूरा प्रयत्न कर रहे थे पर उनका लंड उनकी हर कोशिश को नाकामयाब कर रहा था.
“पंडितजी, अब आप ही बताई की मैं क्या करूं”.
“भाभीजी एक तरीका है, पर पता नहीं आपको पसंद आएगा या नहीं. छोडिये ये सब भी कहने की बातें नहीं हैं. मैं किसी और दिन आता हूँ, आज जरा काम है”. कह कर पंडितजी जल्दी जल्दी चाय पी कर निकलने की कोशिश करने लगे. हाथ से जाता मुर्गा देख कर मैं थोडा तो परेशान हुई पर मैं भी इतनी जल्दी हार नहीं मानने वाली थी.
“अरे पंडितजी बताईए तो”.
पर पंडितजी तो उठने का क्रम करने लगे. पर अचानक से उन्हें पता चला की उनका लंड को खड़ा है. इनकी चोरी अब पकड़ी गयी. मैं भी मौके का पूरा फायदा उठा कर जान बूझ कर हैरान होने लगी.
“पंडितजी ये क्या है?”
“अरे भाभीजी, कुछ भी नहीं.” पंडितजी ने सोचा की अब ओखल में सर दिया है तो मूसल से क्या डरना. “मैं इस तरीके से दक्षिणा लेने की बात कर रहा था”.
अब मैंने सोचा कि अब ज्यादा खेलने से काम बिगड़ सकता है, तो मैंने कहा
“भाभी जी नहीं, रानी कहिये”.
यह सुन कर पंडितजी झटके से मुझे अपनी बांहों में ले लिए.
“अरे अरे, जान जरा रुको तो, दरवाजे को अच्छी तरह से बंद करने तो दो.”
दरवाजा बंद करके मैं पलटी तो देखा पंडितजी तो पहले से ही नंगे तैयार हैं और उनका लंड मेरे अनुमान से अधिक लम्बा निकला.
“पंडितजी इतना बड़ा लंड मैं नहीं ले पाऊंगी”
“पंडितजी नहीं अब जान ही कहो” कह कर पंडित जी ने मेरे होठों पर अपने होंठ जड़ दिए. उनका दाया हाथ मेरी पीठ सहलाने लगा और बायाँ साड़ी के ऊपर से ही मेरी चूत खुजाने लगा. इतन जबरदस्त चुम्मा तो मुझे किसी ने नहीं दिया था. पंडितजी तो पूरे भरे हुए थे. मेरे होंठ को बिलकुल चबाने पर उतर आये. पर कुछ ख्याल कर के थोडा धीरे हुए. उनका दायाँ हाथ मेरे ब्लाउज को खोल चुका था, और मेरे मुम्मे दबा रहा था. पंडितजी अब भी बांये से मेरी चूत खुजा रहे थे और साथ साथ मेरा बायाँ स्तन मुंह में ले लिया और दायें हाथ से मेरे दायें स्तन को हलकी हलके मसल रहे थे. ओह, कितना मजा आ रहा था. इस तरह तो भोलू ने भी नहीं किया था. पंडितजी तो पंहुचे हुए खिलाडी लग रहे थे.
अब हम दोनों बिस्तर पर आ गए. पंडितजी, का हाथ अब साड़ी के अन्दर जा चुका था. अब वो मुझे ऊँगली कर रहे थे. क्या जन्नत का आनंद आ रहा था. बारी बारी से वो मेरे दोनों मुम्मे चूसते थे. ऐसा लग रहा था की चूस चूस कर दूध या खून निकाल ही देंगे.
फिर उन्होंने अपना लंड मेरे मुंह के सीध में किया और तुरंत ही अपना लंड मेरे मुंह में डाल दिया. मेरी तो साँस ही अटकने लगी थी पर पंडितजी ने धीरे धीरे आगे पीछे करना शुरू किया. मैंने कभी किसी का लंड नहीं चूसा था, पर पंडितजी की आवाजें सुन कर लग रहा था की उन्हें बड़ा मजा आ रहा है, तो मैंने भी साथ देना शुरू किया. (मैं कुछ ही दिनों में इस कला में बिलकुल ही माहिर हो गयी हूँ.)
इसके पश्चात् पंडितजी तो बिलकुल ही मैदान मारने को तैयार हो गए. इनके आठ इंच के लंड से तो पहले ही भय था पर जब सच में मेरी चूत में डाली जा रही तो मारे दर्द के मैं तो बिलबिला ही उठ. परन्तु हाय रे निर्मोही पंडितजी मेरे रोने का कोई असर नहीं हुआ, शायद उन्हें पता था की उनके लंड से जब मेरे चूत का कोना कोना खुरच जायेगा तो मजा तो कुछ और ही आएगा. और हुआ भी ऐसा ही, पंडितजी बिना रुके ठाप पर ठाप मारे जा रहे थे, जो पहले दर्द हो रहा था अब वो ही दर्द मजा हो गया था. ऐसी ठाप तो जिंदगी में कभी मिली नहीं, और तो और मैं तो सात जन्मो तक ऐसी चुदाई बिना रुके करवाती रहूँ. पंडितजी की ठाप मारने की रफ़्तार बढती गयी और इधर मैं भी चरमोत्कर्ष पर पहुंचे लगी. मैं पछा गयी और उधर पंडितजी भी दाह गए. तब ध्यान में आया कि हमारी चारपाई कितना आवाज़ कर रही है. खैर हमारे आनंद के आगे अब चारपाई भी कोई कीमत नहीं रखती.
“पंडितजी, मुझे अपनी रखैल बना लो. इतना अच्छी चुदाई तो मेरी कभी नहीं हुई. मैं तो आपके लंड की दीवानी हो गयी हूँ”.
“पंडितजी नहीं रानी, जानू कहो. और रखैल तो क्या मैं तुझे अपनी धर्मपत्नी स्वीकारता हूँ,” यह कह कर उन्होंने मेरे चूत से रिसते खून से मेरी सूनी मांग भर दी.
“पंडितजी ये क्या किया?”
“मैंने कहा न, मुझे जानू कहो. मैंने सब सोच लिया है, मेरी पंडिताई यहाँ ज्यादा चलती नहीं, हम लोग दुसरे शहर चले जायेंगे जहाँ हम दोनों को कोई नहीं जनता हो. मैं पंडिताई का काम शुरू कर दूंगा और रात में आ कर रात भर तुम्हे चोदूंगा. क्या मस्त चूसती हो मेरा तुम और क्या कसी चूत है. ४५ की उम्र में तुम्हारे चूत और बूबे इतने कसे कैसे हैं समझ नहीं आता.”
पंडितजी मुझे बस ४५ का ही समझ रहे थे.
दूसरा भाग:
पंडितजी यानि की जानू और मैं रानी, दोनों रातों रात भाग कर दुसरे शहर आ गए. पर मेरी बुरी किस्मत ने मेरा साथ यहाँ भी नहीं छोड़ा. पंडितजी की पंडिताई नहीं चल रही थी और मुझे तो जैसे आग ही लगी हुई थी. रात रात भर चुदने के बाद भी और भी चुदने का मन करता था. एक बार सपने में मैंने इनके यजमान के साथ चुदाई का सपना देखा. सुबह तो बड़ा मन ख़राब हुआ पर बाद में मैंने खूब सोच विचार किया.
“ऐ जी, आपकी पंडिताई तो चल नहीं रही है, तो एक बात बोलूँ.”
“कहो” दुखी मन से जानू ने जवाब दिया.
“कल रात में मैंने देखा की आपके तीसरे वाले यजमान पूजा के साथ मेरी भी पूजा कर रहे थे”
“क्या मतलब है तुम्हारा”
“मतलब यही कि आपकी पंडिताई नहीं चल रही है तो मैं ही हाथ बंटा दूं.”
इशारों इशारों में मैंने पंडितजी को मेरा भडवा बनने को कह दिया.
पंडित जी ये सुनते ही भन्नाते हुए घर से निकल गए”
मैं अकेली घर में अपने आप को कोसने लगी कि क्यों मैंने ऐसा कह दिया. मन कर रहा था कि अपनी चूत में आग लगा दूं. साली यही चूत ही सब जंजालों की जड़ है. न ये चूत होती न ही हम लोग यहाँ आते और न ही ऐसी वैसी बात होती.
पंडितजी शाम तक नहीं आये. मैंने दिन का खाना बना कर भी नहीं खाया. और रात का खाना बनाने की हिम्मत नहीं हुई.
पंडित जी की राह देखते देखते ८ बज गए. तरह तरह के बुरे ख्याल आने लगे दिल में. कहाँ होंगे, कैसे होंगे. इतना तो मैंने अपने पहले पति के लिए भी नहीं सोचा था.
तभी देखा की पंडितजी दूर से आ रहे हैं और साथ में कोई यजमान भी है. चलो इनका मूड तो ठीक हुआ, और एक ग्राहक भी मिल गया. कल परसों का खर्चा चल जायेगा.
“रानी इनसे मिलो, ये हैं रमेश जी”
यह सुनते ही मैं चौकन्ना हो गयी. पंडितजी कभी भी किसी के सामने मुझे रानी नहीं कहते. रानी वो तभी कहते जब हम अकेले हों और हम दोनों चुदास हो रहे हों.
खैर मैंने मुस्कुरा कर नमस्ते कहा.
“मैंने घर से निकलने के बाद बहुत सोचा तुम्हारी बात को”
“फिर”
“फिर क्या, अब इनको ले कर जाओ”
ये सुनके मेरी बांछें खिल गयी. पंडितजी ने उधर दरवाजा लगाया और मैं रमेश को ले कर अन्दर कमरे में ले गयी. बहुत दिनों के बाद नया लंड मिला है, उत्सुकता बहुत थी और उम्मीद भी बहुत थी. पर जब मैंने इस ५’८” के आदमी का ५” का ही लंड देखा तो मन थोडा दब सा गया. खैर,
रमेश जी तो तृप्त हो गए पर मेरी प्यास नहीं बुझी. तब पता चला की आदमी के कद से उसके लंड की लम्बाई नहीं पता चलती.
अब मेरी चाहत सामूहिक सम्भोग की थी. पंडित जी को बताया तो “नेकी और पूछ पूछ”. उनके कुछ ग्राहक, जो मेरे भी ग्राहक थे, उनकी सामूहिक सम्भोग की प्रबल इच्छा थी.
उस दिन रात में करीब ५ लोग आये थे. सब की उम्र कुछ ५० -५५ के आस पास ही होगी. इनका मानना था की पुरानी शराब की बात ही कुछ और है. इस दुनिया में अभी भी लोग तजुर्बे को तवज्जो देते हैं.
कमरे में सभी लोग मौजूद थे. पंडितजी हमेशा की तरह बाहर ही बैठे थे. ये बहुत दिनों से बाहर किवाड़ों की छेद से अन्दर का नज़र देख कर हस्तमैथुन कर लेते थे. नतीजा मैं बहुत दिनों से पंडित जी से नहीं चुदी थी.
सामूहिक सम्भोग तो सामूहिक बलात्कार जैसा हो रहा था. लोग मेरे कपडे खीच रहे थे. और मैं पगली एक एक कर के उनका लंड पजामे, या पैंट के ऊपर से सहला रही थी. दो लोगो का मैं हाथ से सहला रही थी और एक का जीभ से. इस बीच सारे जानवर मेरे कपडे फाड़ कर मुझे निवस्त्र कर चुके थे. मुझे नंगी देख कर उनका लंड और भी हुमचने लगा. बचे दो लोग में से एक मेरी चूत में ऊँगली करने लगा और एक मेरी गांड में. कमीनो ने एक एक ऊँगली कर के चार चार उँगलियाँ मेरी चूत और गांड में घुसा दी. मैं दर्द से चिल्लाने लगी और उन्हें लगा कि मुझे मजा आ रहा है. सब के सब अब नंगे हो गए. मुझे कुतिया बना कर एक ने अपना लंड मेरे मुंह में दे दिया जिससे मेरे चिल्लाना भी बंद हो गया. और दो लोगो का लंड और पजामे से बहार सक्षार्थ हो गया था. मैं उनका लंड हिलाने लगे. बाकी बचे दो लोग अभी भी मेरी ऊँगली कर रहे थे.
अब इन लोगो ने अपनी स्थिति बदली और एक ने मुझे अपने लंड पर बिठा लिया. इसका लंड मेरे बुर पर फिट बैठ गया. अब चारों लोग एक एक कर के अपना लंड मेरे मुंह में देने लगे और एक – दो का मैं लंड हिला हिला रही थी.
फिर मुझे चित सुला कर एक ने मुझे चोदना शुरू किया और मैं निरंतर किसी को मुखमैथुन प्रदान कर रही थी और किसी दो को हस्तमैथुन. योनिमैथुन अभी भी चालू था. थोड़ी देर में एक झड गया और नया वाला तो और हरामी, उसे तो गुदामैथुन ही करना था. मुझे घोड़ी बना कर मेरी गांड चोदनी शुरू की और वो भी थोड़ी देर में झड गया. एक एक कर के सब तृप्त हो गए. पर मैं अभी तो पछाई नहीं थी. चौथा वाला मुझे थोडा करीब ले कर आया था पर वक़्त से पहले ही झड गया.
सब लोग पंडितजी को पैसे दे कर अपनी पतलून ले कर विदा हो गए. मैं अभी तक नंगी ही बैठी थी. पंडितजी अन्दर आते हैं. मुझे नंगे देख कर कहते हैं “रानी ये क्या? क्यों मजा नहीं आया?”
“जानू तुम्हारी वाली बात ही कुछ और है”
पंडितजी तो इस बात के लिए तैयार ही नहीं थे, मुझे ही कुछ करना पड़ेगा.
मैंने पंडितजी का लंड पर हाथ लगाया, जो सोया हुआ था. धीरे धीरे सहलना शुरू किया. फिर घुटनों के बल बैठ कर धोती के ऊपर से चाटने लगी. उनके पिछवाड़े से धोती की गाँठ खोली और आगे से दूसरा बंधन खोल दिया. पंडितजी अब चड्डी में थे. ऐसे जब उनका मन होता है तो वो बिना चड्डी के ही धोती पहनते हैं पर आज बात ही दूसरी थी. मेरा हाथ पड़ते ही उनका लंड खड़ा होने लगा. उनके कमर से धीरे धीरे चड्डी सरकाई और उफनते लंड को अपने मुंह में ले लिया. कितनो को सोया लंड मेरे मुंह में आकर सांप हो जाता है और फिर ये तो पंडित जी थे. उनके लंड को लोहा बनने में ज्यादा समय नहीं लगा.
फिर बाद में पंडितजी ने खुरच खुरच का ठाप मारा. तब जा कर मेरी अग्नि शांत हुई. पंडितजी के आगे तो कोई नहीं चलता है. अबसे हर दिन चुदने के बाद भी जब तक पंडितजी से न चुद लूं, मन को और तन को शान्ति नहीं मिलती. अब हमारा जीवन सुखपूर्वक चलता है. हम दोनों पैसे कमाते हैं, काम वासना का मजा भी लूटते हैं और पैसे भी लुटाते हैं. दो सालो में ही हमारा अपना दो मंजिला मकान हो गया है.